“उत्तराखंड मेरी मातृभूमि, मातृभूमि, मेरी पितृभूमि, ओ भूमि तेरी जै- जै कारा म्यर हिमाला।”
गिरीश तिवारी (गिर्दा) की ये पंक्तियाँ उत्तराखंड का बड़ा सुन्दर वर्णन करती हैं। देश के उत्तर में स्थित यह पर्वतीय राज्य अपनी सुंदरता के साथ-साथ जन आंदोलनों के लिए भी विख्यात है।
चाहे 1916 में कुमाऊँ परिषद् की स्थापना हो या 1921 का कुली बेगार आंदोलन, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली हो या गौरा देवी, सभी ने इन आंदोलनों के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया। इन्ही चर्चित आंदोलनों में से एक है उत्तराखंड में भू-कानून की मांग।
इस पोस्ट के माध्यम से हम कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डालेंगे और जानेंगे कि इस आंदोलन का उत्तराखंड के जंगल और जमीन से क्या सम्बन्ध है।
1980 का दौर और राज्य आंदोलन की मांग
1980 के दौर में उत्तराखंड के युवाओं ने एक नई चेतना के साथ राज्य में नशे के प्रतिकार किया और महिलाओं ने अपने हकों के लिए शराबबंदी के खिलाफ बोलना शुरू किया। 1980 के दौर में लोगों को लगा कि अब हमारी सारी चीजें हमारे हाथ से जा रही हैं और तत्कालीन सरकारें पहाड़ के लोंगों की अनदेखी कर रही हैं। फिर लोगों ने प्रथक राज्य की मांग के लिए आन्दोलन किया।
जब उत्तराखंड राज्य आंदोलन चल रहा था, तो उस समय एक खूबसूरत सा नारा था-
रहे चमकता सदा शीर्ष पर ऐसा उन्नत भाल बनाओ, उत्तराखंड को राज्य बनाकर भारत को खुशहाल बनाओ।
इस प्रकार से एक पृथक राज्य की मांग का एक सिलसिला चला और 2000 में उत्तराखंड राज्य का उदय हुआ।
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उत्तराखंड में भू-क़ानून की मांग
उत्तराखंड में भू-क़ानून की मांग कभी भी पहाड़ी गैर पहाड़ी मैदान या पहाड़ की नहीं रही है। उत्तराखंड की भौगोलिक कुछ इस प्रकार है कि उसमें उच्च हिमालय क्षेत्र हो या मध्य हिमालय क्षेत्र, भाबर हो या तराई अलग-अलग किस्म की भौगोलिक परिस्थितियां उपस्थित है और उसकी सांस्कृतिक विविधता भी है। लेकिन मूल बात यह है कि उत्तराखंड में जमीनों का सवाल नीति नियंता ने इतने सालों में सुलझाने के बजाय ना केवल उलझाने का किया है।
एक वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी की मानें तो अंग्रेजों ने जब जमीनों की पैमाइश करानी शुरू की तो उन्होंने लगभग 11 बार जमीनों की पैमाइश कराई और लोगों के पास उस जमीन का ये डाटा था और लोग आज भी उसी डाटा पर हम निर्भर हैं।
राज्य में आखिरी पैमाइश 1964 में हुई। 1823 में जब पैमाइश हुई थी तो उस समय लोगों के पास लगभग 29% कृषि योग्य जमीन थी और 1964 की पैमाइश में आते-आते यह मात्र 11% रह गई। लेकिन आज का कोई सटीक आंकड़ा नहीं है।
हाँ, यह भी बात सच है कि पलायन की वजह से लोग अपने पुरखों की जमीन से दूर आ गए हैं, और इसी दौरान जमीनों की उत्पादकता भी गिरी है, जिस पर सरकारों की तरफ से कोई ध्यान नहीं दिया गया।
अंग्रेज़ और वन सम्पदा
अंग्रेजों ने पहाड़ की वन सम्पदा को पहचाना, इतिहासकारों की मानें तो उस समय एक बहुत जानी-पहचानी कहावत थी कि पहाड़ में लोग बस दो सेब को जानते हैं, एक न्यूटन का सेब और एक विल्सन का। अंग्रेजों ने चौबटिया गार्डन का निर्माण किया जिसे हम गवर्मेंट गार्डन के नाम से जानते हैं, यह उत्तराखंड के हॉर्टिकल्चर की समृद्धि का प्रतीक है।
इस गार्डन में अंग्रेजों ने सैकड़ों अलग-अलग तरह के फलों का उत्पादन किया और मुख्य रूप से सेब का उत्पादन किया गया। 1932 में इसे एक रिसर्च सेंटर के रूप में स्थापित किया गया और 1954 में गोविंद बल्लभ पंत ने इसे उत्तराखंड के हॉर्टिकल्चर का मुख्यालय भी बनाया।
लेकिन 2000 में जब उत्तराखंड राज्य का उदय हुआ, तो राज्य बनने के बाद जो पहली चुनी हुई सरकार आई, उन्होंने सरकारी बगीचों को लीज पर देने का काम किया और इसका परिणाम यह हुआ कि उत्पादकता धीरे-धीरे गिरने लगी।
लोगों का कहना है कि सरकारों ने कभी भी इन परेशानियों को अपनी नीतियों में नहीं रखा और जमीनों के कानून को एक ही कानून (उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन) से संबोधित कर करते रहे हैं तथा उसी में संशोधन करते रहे।
हिमांचल भू-क़ानून से कनेक्शन
हिमाचल के भू-कानून जिसे उत्तराखंड के युवा संबोधित कर रहे हैं, वह सिर्फ हिमाचल के भू-कानून की एक धारा 118 से संबंधित है जो जमीनों को खरीदने और बेचने को संबोधित करती है, जबकि उत्तराखंड में भू-कानून का अर्थ पैमाइश और चकबंदी से भी है।
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उत्तराखंड में भूमि से सम्बंधित कुछ अन्य आँकड़े
- वर्ष 1815-16 में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान जमीनों का बंदोबस्त किया गया।
- वर्ष 1840-46, 1870 में जमीन का बंदोबस्त (लैंड सेटलमेंट) हुआ।
- वर्ष 1960 में पर्वतीय क्षेत्रों में जमींदारी व्यवस्था को समाप्त करते हुए “कुमाऊँ एवं उत्तराखंड जमींदारी विनाश अधिनियम-1960” (कूजा) बनाया गया।
- वर्ष 2003 में भूमि खरीद की सीमा 500 वर्ग मीटर तक सीमित की गई।
- वर्ष 2008 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी ने संशोधन कर भूमि खरीद की सीमा घटाकर 250 वर्ग मीटर की।
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